Random Notes

The Krishna Key: Sainis as Descendants of Lord Krishna
The  Krishna Key: Sainis as  Descendants of Lord Krishna

‘Krishna was a descendant of Yadu. The all-encompassing term “Yadava” was used to describe Yadu’s descendants,’ began Saini. ‘But the Yadavas were composed of several clans— eighteen in number. Amongst the Yadava clans mentioned in ancient Indian literature are the Haihayas, Chedis, Vidarbhas, Satvatas, Andhakas, Kukuras, Bhojas, Vrishnis, Shainyas, Dasarhas, Madhus and Arbudas. Now, when I see the names of the five people who have had the seals in their possession, I find it spooky that all five surnames have ancient Yadava connections!’ ‘Ancient Yadava connections? How so?’ asked Priya.


‘Krishna’s grandfather was Shurasena, and some of his tribe came to be known as the Shainyas. Over several generations, the Shainyas eventually settled in the Punjab and came to be known as Saini....."

Sanghi, Ashwin. The Krishna Key (Kindle Locations 2723-2725). Westland Publishing. Kindle Edition.

https://youtu.be/tmcY6n9_DA

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सैनी ( जादों) राजपूत महापराक्रमी राजा श्री विजयपाल शूरसैनी

कुछ पाठकगणो ने जिज्ञासा प्रगट की कि पराक्रमी यदुवंशी राजपूत राजा को शूरसैनी कहे जाने का ऐतिहासिक सन्दर्भ क्या है । इस विषय में प्रमाणों की कोई कमी नहीं है । यहाँ पर हाँ पाठकगणो की जिज्ञासा को शांत करने के लिए कुछ गिने चुने हवाले प्रस्तुत रहे हैं |

जैसा की इन हवालों से वदित है राजा विजयपाल , थिंदपाल (तहनपाल) इत्यादि यदुवंशी राजपूत राजा श्री धर्मपाल (प्रथम) के वंशज थे |इन राजाओं की वंशावली राजा धर्मपाल से शुरू होती है जो की श्री कृष्ण 77वीं पीढ़ी के वंशज थे । यह यदुवंशी राजा सैनी / शूरसैनी कहलाते थे । यह कमान (कादम्ब वन ) का चौंसठ खम्बा शिलालेख सिद्ध करता है और इसको कोई भी प्रमाणित इतिहासकार चुनौती नहीं दे सकता । वर्तमान काल में करौली का राजघराना इन्ही सैनी राजाओं का वंशज है ।

" शौरसैनी शाखावाले मथुरा व उसके आस पास के प्रदेशों में राज्य करते रहे | करौली के यदुवंशी राजा शौरसैनी कहे जाते हैं | समय के फेर से मथुरा छूटी और सं. 1052  में बयाने के पास बनी पहाड़ी पर जा बसे | राजा विजयपाल के पुत्र तहनपाल (त्रिभुवनपाल) ने तहनगढ़ का किला बनवाया | तहनपाल के पुत्र धर्मपाल (द्वितीय) और हरिपाल थे जिनका समय सं 1227 का है | "
- पृष्ठ 302 ,   नयनसी री ख्यात ,  दूगड़ (भाषांतकार )

"इनका शासन राजस्थान में करौली में था । यह शूरसैनी कहलाते थे । कृष्ण के दादा शूरसेन थे और इस कारण मथुरा के आस पास का क्षेत्र शूरसेन कहलाता था और इस क्षेत्र के यादव शूरसैनी कहलाते थे ।"

- मांगी लाल महेचा , राजस्थान के राजपूत , १९६५

इतिहासकार राजा पोरस को भी शूरसैनी यादव (अर्थात सैनी ) मानते हैं । मेगेस्थेनेस जब भारत आया तो उसने मथुरा के राज्य का स्वामित्व शूरसैनियों के पास बताया । उसने सैनियों के पूर्वजों को यूनानी भाषा में "सोरसिनोई " के नाम से सम्भोदित किया । यह उसका लिखा हुआ ग्रन्थ "इंडिका" प्रमाणित करता है जो आज भी उपलभ्ध है।

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श्री कृष्ण वंशी सैनी , भाटी , जडेजा और जादों राजपूत

जादौ शब्द यादव का अपभ्रंश है। ब्रज भाषा में 'य' को 'ज' बोला जाता है।। श्री कृष्ण का अवतार यादवों की शूरसैनी शाखा में हुआ था। महाराजा शूरसेन जो श्री कृष्ण के दादाजी अर्थात महाराज वसुदेव जी के पिता थे मथुरा के पास बटेश्वर के राजा थे।। श्री कृष्ण कभी भी मथुरा के राजा नहीं रहे।। कंस जो यादवों की अंधक शाखा से थे मथुरा के राजा थे। उनके संघार के बाद श्री कृष्ण ने कंस के पिता अपने नाना उग्रसेन जी को मथुरा का राजा बनाया।। श्री कृष्ण को सभी यादव शाखाओं जैसे वृष्णि अंधक भोज चेदि कुकुर आदि ने एक महासंघ बनाकर उन्हें अपना नेता चुना।। जब प्रभास में यादव कुल आपस में लड़कर खत्म होने लगे तो श्री कृष्ण की आज्ञा अनुसार अर्जुन सभी यादव स्त्रियों बूढ़ों बच्चों को लेकर पंचनद क्षेत्र (आज का पंजाब) ले गए। रास्ते में उनपर अभीरों ने हमला किया। श्री कृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ जी को मथुरा लाकर वहां का राजा बनाया गया।।

इस तरह शूरसैनी यादव पहली बार मथुरा के राजा बने जो की शकों हूणों और कुषाणों के आगमन तक रहा।। पंचनद में बसाये गए शूरसैनी यादवों का राज्य आज के पंजाब से लेकर आज के अफ़ग़ानिस्तान तक फैला हुआ था। एक प्रतापी शूरसैनी यादव राजा गज ने गजनी शहर बसाया। राजा गज के पुत्र राजा शालिवाहन ने अपने नाम से एक किला बनाया जिसे शालिवाहन कोट कहते थे जो बाद में स्यालकोट कहा जाने लगा।। शालिवाहन के वंशज राजा भाटी ने भाटी वंश चलाया।कालांतर में खुरासानी और इंडो ग्रीक राजाओं के निरंतर हमलों की वजह से भाटी शाखा दक्षिण में सिंध की तरफ चली गयी और वहां से बाद में राओ जैसल भाटी ने जैसलमेर बसाया। मध्यकाल में शूरसैनी यादव मात्र सामंत रह गए थे। बाद में इन्होंने अपना राज वापिस लिया। महमूद ग़ज़नवी के हमलों को रोकने के लिए इन्ही शूरसैनी यादवों ने एक बार फिर राजा धर्मपाल के वंशज जैतपाल (जयेन्द्र पाल) , विजयपाल , थिंदपाल (ताहनपाल) इत्यादि के नेतृत्व में पंजाब के हिन्दूशाही और काबुलशाही राज्य की सहायता के लिए पंचनद क्षेत्र का रुख किया।।

इस समूह ने ग़ज़नी और गौरी मुसलमानो के साथ लगभग २०० वर्ष तक युद्ध किये लेकिन तराई के युद्ध में राजपूतो की पराजय के बाद यह भी हार गए इसलिए पहाड़ी क्षेत्रों और उनके साथ लगते मैदानी क्षेत्रों में बस गए लेकिन इन्होंने अपनी राजपूती पहचान नहीं छोड़ी और ना ही इस्लामिक आक्रांताओं से समझौता किया।। जो समूह मथुरा में रहा वो भी मथुरा हार जाने की वजह से बयाना करौली तिमनगढ़ इत्यादि जगहों पर बस गए।। इस तरह पंजाब के शूरसैनी/सैनी तथा उत्तर प्रदेश राजस्थान के जादौन आज भी अपने प्राचीन नाम से ही जाने जाते हैं।। भाटियों की और भी शाखाएं निकल गईं जैसे जडेजा चुडासमा इत्यादि।। कुछ इतिहासकारों का ये भी मानना है कि द्वारिका के डूबने पर एक शूरसैनी शाखा बलराम जी के साथ आज के अरब देश से होते हुए इजराइल तथा मिस्र तक पहुंची। जहां ये बसे उस जगह को इनके नाम पर sinai (pronounced as सैयनी) कहते हैं तथा यदुकुल के होने की वजह से वहां के स्थानीय निवासी इन्हें यूडी कहते थे।। हरि के कुल से होने की वजह से इन्हें हरिकुलीज़ भी कहते थे जिसको ग्रीक Hercules कहते हैं।। सिकंदर जब भारत आया तो उसका सामना इसी शूरसैनी यादव कुल के राजा पुरु से हुआ जिसे वो पोरस कहते थे और उसके कुल को saursenoi (शूरसैनी) ।। आज बहुत सी जातियां राजा पोरस को अपनी अपनी जातियों का बताते हैं लेकिन इतिहासकार अब इस बात को मानते हैं कि पोरस यादवों की शूरसैनी शाखा से थे।। यादवों के अन्य कुल जैसे कल्चुरी हैहय चेदि इत्यादि भी मध्यकाल तथा मुग़लकाल तक काफी गौरवशाली इतिहास रखते हैं लेकिन 1947 में भारत के स्वतंत्र होने पर जो भी यदुवंशी रजवाड़े और रियासतें थीं वह सभी यादवों की शूरसैनी शाखा से ही थे।।।

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नोट- पशिचमी यू.पी में भागीरथी,मुराव (मौर्य),काछी (कुशवाहा), सागरवंशी (शाक्य), गोले जो आज कल अपने को "सूर्यवंशी सैनी" कहते हैं 1900 और राजस्थान और दक्षिण हरियाणा में माली 1937 के बाद से सैनी लिखते है जिनका यदुवंशी सैनी राजपूतो से कोई सम्बन्ध नहीं है। यदुवँशी सैनी राजपूत यदुवँश की जादों शाखा से हैं जिसमे राजा धर्म पाल , राजा विजय पाल और राजा थिंद पाल इत्यादि सैनी राजपूत राजा हुए । सैनी वंश कि स्थापना श्री कृष्ण के दादा महाराजा शूरसेन द्वारा हुई जिस कारण यह शूरसैनी कहलाते हैं । ग्यारवी से तेरवी शताब्दियों के अंतराल में सैनी राजपूत गज़नी और गौरी के हमले रोकने के लिए मथुरा , बयाना, कमान और दिल्ली से पंजाब गए और समय अनुसार पंजाब, हिमाचल, जम्मू और पश्चिमोत्तर हरयाणा के नीम पहाड़ी क्षेत्रों में बस गए । (proof - https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/8/85/1937_Jodhpur_State_Order-_Renaming_of_Mali_Caste_as_Saini.JPG)

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"राजा शूरसेन यादव थे । इस लिए उनके वंशज अपने को यादव अथवा शूरसैनी दोनों कहा सकते थे । "

- प्रसिद्ध इतिहासकार दशरथ शर्मा

स्रोत्र : Chauhān Dynasties: A Study of Chauhān Political History, Chauhān Political Institutions, and Life in the Chauhān Dominions, from 800 to 1316 A.D., By Dasharatha Sharma, pp 103, Published by Motilal Banarsidass, 1975

राजा धर्मपाल द्वारा पुनः स्थापित यादव राजपूत वंश से उत्पन सभी राजा और रजवाड़े अपने को शूरसैनी कहाते थे । ऐसा इस लिए क्योंकि उनके वंश का उद्गम उस यादव कुल से हुआ जिसके मुखिया राजा शूरसेन थे । राजा धर्मपाल जी राजा शूरसेन के वंशज थे । इस लिए वह और उनके वंशज शूरसैनी कहाये । सामान्य भाषा में "शूरसैनी" शब्द को कभी काट कर "सैनी" या कभी "शूर" कर दिया जाता था । रणमल जो कि राजा हमीर देव चौहान के मंत्री और सलाहकार थे इसी कुल के राजपूत थे । इसी लिए दशरथ शर्मा ने उनको शूर राजपूत लिखा है । राजा हमीर देव के प्रमुख सेनापति भी इसी कुल के थे और आमिर खुसरो ने उनका नाम गुरदान सैनी बताया है । यह दोनों एक ही कुल के जादों राजपूत थे । राणा गुरदान सैनी ने रणथम्बोर युद्ध में राजपूत फ़ौज कि कमान संभाली और बहुत घमासान युद्ध के बाद उन्होंने वीरगति प्राप्त की। खुसरो ने लिखा है खिलजी की मुस्लमान फ़ौज सबसे ज़्यादा इनके नाम से भयभीत थी ।

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"जो द्रण राखे धर्म को , तिहि राखें करतार ।"

अर्थात जो अपने धर्म के प्रति द्रण रहता है ,ईश्वर सदैव उसकी सहायता करते है ।

- महाराणा प्रताप

...

जय भगवान एकलिंग ! जय महाराणा प्रताप । जय क्षत्रिय धर्म ।


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तत्त्व विचार

विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि |
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिता: समदर्शिन: || 18||

...

अर्थ : ज्ञानी पंडित , जो विद्या और विनय से संपन्न होते हैं , वे ब्राह्मण , गाये , हाथी , कुत्ते और चांडाल को सम दृष्टि से देखते हैं । अर्थात वे प्राणियों , वर्णो और भौतिक विषयों में द्वेष और द्वैत बुधि से मुक्त होते हैं ।

-भगवद गीता , अध्याय 5 श्लोक 18

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ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਸਦਾ ਸਮ ਦਰਸ਼ੀ ।
ब्रह्म ज्ञानी सदा सम दर्शी ।

अर्थ : ब्रह्म ज्ञानी द्वन्द और द्वेष से मुक्त होता है ।

- सुखमनी साहिब , श्री गुरु ग्रन्थ साहिब ।

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जय महाराजा शूरसेन !
जय बलभद्र श्री बलराम शूरसैनी !
जय यदु कुल शिरोमणि व्रजपाल माधव गोविन्द श्री कृष्ण शूरसैनी!

भाईओ पंजाब का सैनी समुदाय मूलतः एक भागवत परायण यदुवंशी क्षत्रिय/राजपूत वंश है । इस वंश के लोगों ने सनातन और सिख धर्म की रक्षा हेतु बहुत बलिदान दिए हैं ! धर्म कुल और जाति से भी पहले आता है । धर्म के बिना सैनी क्षत्रिय का कोई अर्थ और औचित्य नहीं बचता है । अर्थात जहाँ धर्म नहीं वहां सैनी भी नहीं ।

सैनियों का पूरा इतिहास महाभारत काल से लेकर अब तक वेद , वेदांत , संत मत और सिख पंथ के रक्षण का एक प्रयायवाची है । इन्ही मूल्यों एवं संस्कारों की रक्षा हेतु सैनी राजपूतों ने गज़नी के साथ युद्ध में ग्यारवीं सदी में अपना मथुरा और दिल्ली का राज पाठ भी लुटा दिया । अर्थात इनके पूर्वजों ने इन धार्मिक संस्कारों की रक्षा में रक्त और खज़ाना दोनों लगा दिए ।

बड़े दुःख की बात है के इस धर्मावलम्बी क्षत्रिय कुल की पहचान को दक्षिण हरयाणा और उससे परे एक वेद और देव निंदक विचारधारा के राहु ने ग्रसित कर लिया है। 1937 के बाद माली जाती के लोग सेना में भर्ती के लिए अपने को "सैनी" लिखने लगे जो वे थे नहीं । आज कल कुछ कृत्रिम सैनी , जो की वास्तव में माली हैं, ज्योति राव फूले को "सैनी" बना कर पेश करने पर तुले हैं जो की वो नहीं था । ज्योति राव फूले वेदों को और हिन्दुओं के पूजनीय अवतारों को गन्दी गन्दी गालियां निकालता था ।
इस तथ्य को पुष्टी के लिए नीचे पहले की पुस्तक "गुलामगिरी" में से कुछ पंक्तियाँ उदाहरण के लिए उद्धृत की गईं हैं । इन्हें अवश्य पढ़े और जागरूक बने । यह सब पढ़ने के बाद अगर आपकी धार्मिक भावनाओं को चोट पहुँचती है तो हम क्षमा प्रार्थी हैं । कई बार समाज को जागृत करने के लिए और संवाद में पूर्व पक्ष को प्रबल करने के हेतु देव अपराधियों के विचार भी प्रकाशित करने आवश्यक हो जाते हैं ।

जन साधारण को यह सूचित किया जाता है की वो की माली जाति के कुछ धर्म भ्रश्ट और पथ भ्रमित तत्वों के दुष्प्रचार से बचें और ज्योति राव फूले का पर्दाफाश करने में हमारा सहयोग दें । इस व्यक्ति का दूर दूर तक सैनी वंश के साथ कोई सम्बन्ध नहीं था । माली जाति के लोग परिश्रमी होते हैं और हम इस जाति का सम्मान करते हैं परन्तु शुद्ध क्षत्रिय / राजपूत सैनियों की पहचान और उनकी चिर काल से चलती आयी वैदिक संस्कृति के साथ छेड़ छाड़ असहनीय है । ऐसा भी नहीं कि फुले ने कुछ अच्छे काम नहीं किये होंगे । पर आप ही सोचिये कि थोड़े बहुत अच्छे काम करने के बाद किसी को देवताओं और अवतारों को गाली देने का और वेदों को झूठा कहने का अधिकार मिल जाता है ?

सैनी क्षत्रिय वंश के कुल धर्म और जातीय प्रतिष्ठा की रक्षा करना हमारा उद्देश्य है किन्तु उस से भी ऊपर हमारा उद्देश्य है भागवत धर्म की रक्षा करना क्यों कि जहाँ धर्म नहीं वहां सैनी भी नहीं । सहयोग के लिए प्रारम्भ में ही धन्यवाद !
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फुले के द्वारा कि गयी अभद्र देव निंदा के कुछ उदाहरण

सृष्टि के कर्ता भगवान् ब्रह्मा जी और जगत जननी माता सरस्वती के बारे में ज्योति राव फूले लिखता है :

"अब यदि उसे रंडीबाज कहा जाये तो उसने सरस्वती नाम की अपनी कन्या से सम्भोग (व्यभिचार) किया था । इस लिए उसका नाम बेटीचोद हो गया ।"

जगत के पालनहार श्री विष्णु जी के अवतार श्री नरसिंह भगवान जी बारे में ज्योतिराव फूले का अपनी पहली पुस्तक गुलामगिरी का एक कथन:

"नरसिंह स्वभाव से लालची, धोखेबाज़, विश्वासघाती, विनाशकारी, क्रूर और भ्रष्ट था। वह शरीर से बहुत मज़बूत और बलवान था।"

--परिच्छेद पांच, पृष्ठ 39 . गुलामगिरी

अति पूजनीय, ब्राह्मण समाज के शिरोमणि श्री आदिनारायण अवतार भगवन परशुराम जी के बारे में ज्योतिराव फूले का अपनी पुस्तक गुलामगिरी का एक कथन:

" परशुराम स्वभाव से उपद्रवी, साहसी, विनाशी, निर्दयी, मूर्ख और नीच प्रवृत्ति का था।"

-- परिच्छेद आठ, पृष्ठ 55, गुलामगिरी

सृष्टि के रचयिता श्री ब्रह्मा जी के दत्तक पुत्र मुनिवर नारद जी के विषय में ज्योतिराव फूले का अपनी पुस्तक गुलामगिरी का एक कथन;

" शास्त्रों के बारे में शुद्र गुलामों को नारद जैसे धूर्त, चतुर, सदा औरतों में रहनेवाले छिछोरे द्वारा ताली पीट - पीटकर उपदेश करने की वजह से यूं ही ब्रह्मा का महत्व बढ़ गया।"

-- परिच्छेद एक, पृष्ठ 33, गुलामगिरी

https://brambedkar1891.files.wordpress.com/2016/10/gulamgiri-in-hindi.pdf

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पंजाब के सैनियों /राजपूतों को बादल सरकार ने कुछ मूर्ख छुटभैय्ये "नेताओं" के पीछे लग कर गत वर्ष (2016) चुनाव से से ठीक पहले पिछड़ी जाति श्रेणी में डाल दिया। यह मात्र एक चुनावी हथकंडा था और पंजाब के सभी राजपूत मूल समुदायों में, जिन में सैनी भी आते हैं , इस फैसले के प्रति गहरा रोष है और इन समुदायों को इस फैसले से बड़ा मानसिक आघात पहुंचा है ।

यह बात उल्लेकनिय है की पंजाब में जितने भी सैनी/राजपूत समुदाय के लोगों को आप बड़े ओहदे पर देखते हैं उन में से आज तक किसी ने आरक्षण की सहायता... नहीं ली । सभी ने अपने बूते से जनरल केटेगरी में प्रतिस्पर्धा करके अपने पद प्राप्त किये हैं ।

पंजाब के सभी राजपूत मूल के समुदाय इस सरकारी फैसले को रद्द करने के लिए भरसक प्रयास कर रहे हैं । क्षत्रिय आरक्षण और संरक्षण देता है , लेता नहीं है।

यह उल्लेखनीय है की इन समुदायों के अधिकतर लोग "क्रीमी लेयर" में आते हैं । इस सरकारी फैसले से राजपूतों/सैनियों को बदनामी के सिवाय कुछ हासिल नहीं हुआ । वैसे भी आज कल 96 .45 % उन्नति के मौके और नौकरियां प्राइवेट सेक्टर में हैं । सरकारी नौकरियों का अनुपात केवल 3. 55% है और यह निजीकरण की वजह से दिनों दिन और घट रहा है ।

आरक्षण कमज़ोर के लिए दी गयी एक भिक्षा के समान है । क्षत्रिय कभी भिक्षा पर नहीं जीते और केवल बाहु बल, परिश्रम और धैर्य पर ही अपनी उन्नति के लिए भरोसा रखते हैं । पंजाब के सभी राजपूत/क्षत्रिय जातियों का इस आदर्श को नहीं भूलना चाहिए और आरक्षण के मीठे ज़हर से दूर इनको दूर रहना चाहिए ।

जय दशमेश पिता श्री गुरु गोबिंद सिंह जी !
जय 96 करोड़ खालसा जी !
जय श्री शूरसेन महाराज जी !
जय श्री कृष्ण महाराज जी !
जय श्री बलभद्र महाराज जी !
जय शूरसैनी यदु वंश !
जय श्री महाराणा प्रताप जी !
जय राजपुताना !
जय क्षत्रिय धर्म !

भवदीय ,
शूरसैनी यदुवंशी राजपूत महासभा (पंजाब इकाई )

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मालियों या किसी और हिन्दू बिरादरी का साथ लेना या देना बुरी बात नहीं। लेकिन इस तरह की भागीदरी में एक दूसरे की अलग पहचान का आदर होना चाहिए और यह कसी तीसरी बिरादरी के खिलाफ नहीं होनी चाहिए । ब्राह्मणो और सैनियों के रिश्ते बहुत सौहार्दपूर्ण हैं और हमारे में से हिन्दू सैनी भाई उनके यजमान हैं । हमारी बिरादरी के महावीर राजा शेर सिंह सलारिआ ने ब्राह्मण और गो रक्षा हेतु मुग़लों से युद्ध करके बलिदान दिया था । नवमी पातशाही गुरु तेग़ बहादुर जी ने कश्मीरी ब्राह्मणो के सम्मान की रक्षा के लिए अपना शीश दिया । सिख धर्म में भी भाई चौपा सिंह , भाई मति दास , भाई सति दास और केसर सिंह छिब्बर जैसे ब्राह्मण सिखों का योगदान उच्च कोटि का रहा है ।

माली ज्योति राओ फुले के अनुयायी हैं जो एक ब्राह्मण, भागवत अवतार और वेद निंदक था । उल्लेखनीय है की इन अवतारों का सिख ग्रंथों में भी आदर पूर्वक वर्णन है । इस लिए सैनियों के जातीय संस्कार मालियों  से मेल नहीं खाते ।

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जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है,
वह नर नहीं नर पशु निरा है और मृतक समान है।

-मैथिली शरण गुप्त

...

जय महाराजा शूरसेन ।
जय 96 करोड़ खालसा जी !
जय राजपुताना !


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"इनका शासन राजस्थान में करौली में था । यह शूरसैनी कहलाते थे । कृष्ण के दादा शूरसेन थे और इस कारण मथुरा के आस पास का क्षेत्र शूरसेन कहलाता था और इस क्षेत्र के यादव शूरसैनी कहलाते थे ।"

- मांगी लाल महेचा , राजस्थान के राजपूत , 1965

महाभारत में यदुवंशी सैनी क्षत्रियों के उल्लेख :

"शूर सैनियों में सर्वश्रेष्ठ , शक्तिशाली, द्वारका में निवास करने वाले , श्री कृष्ण, भूपतियों का दमन कर, पूरे भूमंडल पर शासन करेंगे । वे राजनीति शास्त्र में पूर्णतः निपुण होंगे । "

(श्री वेद व्यास, महाभारत , स्कंध १३, अध्याय १४७)

URL : http://www.sainionline.com/shoorsainis-in-mahabharata


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डॉक्टर सतिंदर पाल सिंह सैनी जो की सतिंदर सरताज के नाम से सुविख्यात हैं होशिआरपुर के बजरौड़ गाँव से हैं । इन्होने हॉलीवुड में भी अब अपने पाँव जमा लिए हैं । आप इनका अभिनय "दी ब्लैक प्रिंस" में देख सकते हैं । यह पंजाब यूनिवर्सिटी से संगीत में PhD भी हैं ।

इनकी गायकी का आनंद आप उठायें ....

https://www.youtube.com/watch?v=-fjZzVhGP00
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इंदरजीत सिंह सैनी को भारत का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति भी माना जाता है । यह इंटरव्यू 2014 की एशियाई गेम्स के बाद का है । इसके बाद वो एशियाई चैंपियनशिप जीत कर एशिया के सबसे शक्तिशाली व्यक्ति भी बने । इनका कद 6 फुट और 5 इंच है और इनका वजन 150 किलो है ।

यह पंजाब में नवांशहर के एक सैनी क्षत्रिय / राजपूत परिवार से हैं और पूरे देश के युवाओं के लिए एक प्रेरणा हैं...

https://www.youtube.com/watch?v=E6O1wqN61-U


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अरे घास री रोटी ही जद बन बिलावड़ो ले भाग्यो।
अरे घास री रोटी ही जद बन बिलावड़ो ले भाग्यो।
नान्हो सो अमर्यो चीख पड्यो राणा रो सोयो दुख जाग्यो।
हूं लड्यो घणो हूं सह्यो घणो
मेवाड़ी मान बचावण नै,
हूं पाछ नहीं राखी रण में
बैर्यां री खात खिडावण में,
जद याद करूँ हळदीघाटी नैणां में रगत उतर आवै,
सुख दुख रो साथी चेतकड़ो सूती सी हूक जगा ज्यावै,
पण आज बिलखतो देखूं हूँ
जद राज कंवर नै रोटी नै,
तो क्षात्र-धरम नै भूलूं हूँ
भूलूं हिंदवाणी चोटी नै
मैं’लां में छप्पन भोग जका मनवार बिनां करता कोनी,
सोनै री थाल्यां नीलम रै बाजोट बिनां धरता कोनी,
अै हाय जका करता पगल्या
फूलां री कंवळी सेजां पर,
बै आज रुळै भूखा तिसिया
हिंदवाणै सूरज रा टाबर,
आ सोच हुई दो टूक तड़क राणा री भीम बजर छाती,
आंख्यां में आंसू भर बोल्या मैं लिखस्यूं अकबर नै पाती,
पण लिखूं कियां जद देखै है आडावळ ऊंचो हियो लियां,
चितौड़ खड्यो है मगरां में विकराळ भूत सी लियां छियां,
मैं झुकूं कियां ? है आण मनैं
कुळ रा केसरिया बानां री,
मैं बुझूं कियां ? हूं सेस लपट
आजादी रै परवानां री,
पण फेर अमर री सुण बुसक्यां राणा रो हिवड़ो भर आयो,
मैं मानूं हूँ दिल्लीस तनैं समराट् सनेशो कैवायो।
राणा रो कागद बांच हुयो अकबर रो’ सपनूं सो सांचो,
पण नैण कर्यो बिसवास नहीं जद बांच नै फिर बांच्यो,
कै आज हिंमाळो पिघळ बह्यो
कै आज हुयो सूरज सीतळ,
कै आज सेस रो सिर डोल्यो
आ सोच हुयो समराट् विकळ,
बस दूत इसारो पा भाज्यो पीथळ नै तुरत बुलावण नै,
किरणां रो पीथळ आ पूग्यो ओ सांचो भरम मिटावण नै,
बीं वीर बांकुड़ै पीथळ नै
रजपूती गौरव भारी हो,
बो क्षात्र धरम रो नेमी हो
राणा रो प्रेम पुजारी हो,
बैर्यां रै मन रो कांटो हो बीकाणूँ पूत खरारो हो,
राठौड़ रणां में रातो हो बस सागी तेज दुधारो हो,
आ बात पातस्या जाणै हो
घावां पर लूण लगावण नै,
पीथळ नै तुरत बुलायो हो
राणा री हार बंचावण नै,
म्है बाँध लियो है पीथळ सुण पिंजरै में जंगळी शेर पकड़,
ओ देख हाथ रो कागद है तूं देखां फिरसी कियां अकड़ ?
मर डूब चळू भर पाणी में
बस झूठा गाल बजावै हो,
पण टूट गयो बीं राणा रो
तूं भाट बण्यो बिड़दावै हो,
मैं आज पातस्या धरती रो मेवाड़ी पाग पगां में है,
अब बता मनै किण रजवट रै रजपती खून रगां में है ?
जंद पीथळ कागद ले देखी
राणा री सागी सैनाणी,
नीचै स्यूं धरती खसक गई
आंख्यां में आयो भर पाणी,
पण फेर कही ततकाळ संभळ आ बात सफा ही झूठी है,
राणा री पाघ सदा ऊँची राणा री आण अटूटी है।
ल्यो हुकम हुवै तो लिख पूछूं
राणा नै कागद रै खातर,
लै पूछ भलांई पीथळ तूं
आ बात सही बोल्यो अकबर,
म्हे आज सुणी है नाहरियो
स्याळां रै सागै सोवै लो,
म्हे आज सुणी है सूरजड़ो
बादळ री ओटां खोवैलो;
म्हे आज सुणी है चातगड़ो
धरती रो पाणी पीवै लो,
म्हे आज सुणी है हाथीड़ो
कूकर री जूणां जीवै लो
म्हे आज सुणी है थकां खसम
अब रांड हुवैली रजपूती,
म्हे आज सुणी है म्यानां में
तरवार रवैली अब सूती,
तो म्हांरो हिवड़ो कांपै है मूंछ्यां री मोड़ मरोड़ गई,
पीथळ नै राणा लिख भेज्यो आ बात कठै तक गिणां सही ?
पीथळ रा आखर पढ़तां ही
राणा री आँख्यां लाल हुई,
धिक्कार मनै हूँ कायर हूँ
नाहर री एक दकाल हुई,
हूँ भूख मरूं हूँ प्यास मरूं
मेवाड़ धरा आजाद रवै
हूँ घोर उजाड़ां में भटकूं
पण मन में मां री याद रवै,
हूँ रजपूतण रो जायो हूं रजपूती करज चुकाऊंला,
ओ सीस पड़ै पण पाघ नही दिल्ली रो मान झुकाऊंला,
पीथळ के खिमता बादल री
जो रोकै सूर उगाळी नै,
सिंघां री हाथळ सह लेवै
बा कूख मिली कद स्याळी नै?
धरती रो पाणी पिवै इसी
चातग री चूंच बणी कोनी,
कूकर री जूणां जिवै इसी
हाथी री बात सुणी कोनी,
आं हाथां में तलवार थकां
कुण रांड़ कवै है रजपूती ?
म्यानां रै बदळै बैर्यां री
छात्याँ में रैवैली सूती,
मेवाड़ धधकतो अंगारो आंध्यां में चमचम चमकै लो,
कड़खै री उठती तानां पर पग पग पर खांडो खड़कैलो,
राखो थे मूंछ्याँ ऐंठ्योड़ी
लोही री नदी बहा द्यूंला,
हूँ अथक लडूंला अकबर स्यूँ
उजड्यो मेवाड़ बसा द्यूंला,
जद राणा रो संदेश गयो पीथळ री छाती दूणी ही,
हिंदवाणों सूरज चमकै हो अकबर री दुनियां सूनी ही।

https://www.youtube.com/watch?v=xiNx1EwonZs
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"पुर्ज़ा पुर्ज़ा कट मरे, कबहूँ न छाड़े खेत"

परमवीर चक्र विजेता श्री जोगिंदर सिंह सैनी की शौर्य गाथा -

मोगा, पंजाब में जन्मे सूबेदार जोगिन्दर सिंह शाहनं सैनी 23 अक्टूबर, 1962 को तवांग में सिख रेजिमेंट की एक पल्टन का नेतृत्व कर रहे थे। परिस्तिथियाँ अनिष्टसूचक थीं, क्योंकि थोड़ी दूर पर चीनी सैनिकों का बड़ी संख्या में जमावड़ा हो रहा था।

तवांग पर कब्ज़ा करने के इरादे से चीन ने करीबन 200 सैनिकों के द्वारा चौकी पर भीषण हमला बोल दिया। चीनी सेना संख्या में अत्याधिक और उच्चतर हथियारों से लैस थी। साथ ही उन्हें तोपों से सहायक गोलाबारी भी मिल रही थी।

परन्तु सूबेदार जोगिन्दर सिंह हथियार डालने के इरादे नहीं पाल रहे थे। तवांग का दुश्मन के हाथों में जाना उन्हें स्वीकार्य नहीं था। उन्होंने अपनी पल्टन का साहसवर्धन किया और एक चट्टान की प्रकार दुश्मन का मार्ग अवरुद्ध किया। वीरता के साथ दुश्मन के आक्रमण को भारी क्षति पहुँचाई और उसे वापस हटना पड़ा।

परन्तु दुश्मन पुनः संगठित हुआ और फिर हमले की तरंग सूबेदार जोगिन्दर सिंह की पलटन से जा टकराई। इस बार तोपों के मुँह की अनवरत भारी गोलाबारी से चौकी पट गयी। आधे से ज्यादा पल्टन काल के गाल में समा गयी। परन्तु सूबेदार जोगिन्दर सिंह ने पीछे हटने से इनकार कर दिया और पल्टन ने दुश्मन को एक इन्च भी आगे नहीं बढ़ने दिया। साथ ही दुश्मन के दूसरे हमले को भी विफल किया।

दुश्मन ने तीसरी बार जब उनकी पल्टन पर हमला बोला तो प्रत्युत्तर के लिए उनके पास ज्यादा कुछ बचा नहीं था। स्वयं भी गंभीर रूप से घायल हो जाने के बावजूद सूबेदार जोगिन्दर सिंह ने मशीनगन संभालते हुए दुश्मन पर निशाना साधा और 50 से ज्यादा दुश्मनों को मौत के सुपुर्द कर दिया। परन्तु स्वयं के सैनिकों की मृत्यु को अनदेखा करते हुए दुश्मन सेना ने हमला जारी रखा।

जब सूबेदार जोगिन्दर सिंह की पल्टन के पास गोलियाँ तक समाप्त हो गयीं तो उन्होंने “जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल” की युद्धनाद की और खाली बन्दूक में Bayonet लगा कर ही अपनी पल्टन के साथ दुश्मन पर टूट पड़े और कई सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया।
जब दुश्मन ने सूबेदार जोगिन्दर सिंह पर नियंत्रण पाया तो वे घायल और थके हुए अवश्य थे परन्तु उनमें लड़ने की इच्छा तब भी प्रबल थी। गंभीर रूप से घायल सूबेदार जोगिन्दर सिंह की बाद में युद्ध बंदी शिविर में मृत्यु हुई।

अपने प्रेरणादायक नेतृत्व, अटल साहस, सेवानिष्ठा, के लिए सूबेदार जोगिन्दर सिंह को परमवीर चक्र से अलंकृत किया गया।

इस परमवीर को मेरा सलाम।
जय हिन्द!!!

नोट- राजस्थान और दक्षिण हरियाणा में माली और पशिचमी यू.पी में भागीरथी,मुराव (मौर्य),काछी (कुशवाहा), सागरवंशी (शाक्य) भी 1937 के बाद से सैनी लिखते है जिनका यदुवंशी सैनी राजपूतो से कोई सम्बन्ध नहीं है। यदुवँशी सैनी राजपूत यदुवँश की जादौन शाखा से है। सैनी/शूरसैनी वंश भगवान श्री कृष्ण के दादा एवं वासुदेव के पिता महाराजा शूरसैनी से आरम्भ हुआ। 11वी शताब्दी में ग़ज़नवी आक्रमण से लड़ने के लिए यदुवंशी सैनी करौली, मथुरा से जम्मु, हिमाचल, पजाँब और उतर हरियाणा मे पलायन कर गए । (proof - https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/8/85/1937_Jodhpur_State_Order-_Renaming_of_Mali_Caste_as_Saini.JPG)

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क्या किसी सैनी क्षत्रिय/राजपूत ने आज तक ओलंपिक्स का स्वर्ण पदक जीता है? जी हाँ , जीता है ! बात भले ही मानने में कठिन लगती है....क्योंकि जिन भारतियों को यह सौभाग्य प्राप्त हैं उनके नाम उँगलियों पर गिने जा सकते हैं ।

मिलिए एक छुपी हुई सैनी प्रतिभा से जिनका नाम है कुलबीर सिंह भौरा । इन्होने 1988 के सीओल ओलंपिक्स में ब्रिटिश फील्ड हॉकी टीम में फॉरवर्ड के रूप में खेलते हुए स्वर्ण पदक हासिल किया । इनका जन्म 1955 में जालंधर में हुआ और बाद में इनका परिवार इंग्लैंड में बस गया । इनके इलावा बलवंत सिंह सैनी और पम्मी सैनी ब्रिटिश हॉकी के जाने माने नाम हैं ।

और एक बात । बलजीत सिंह सैनी का नाम याद है आपको ? इन्होने 1998 की एशियाई गेम्स में इंडिया को फील्ड हॉकी में सवर्ण पदक दिलाया था ।

नोट- राजस्थान और दक्षिण हरियाणा में माली और पशिचमी यू.पी में भागीरथी,मुराव (मौर्य),काछी (कुशवाहा), सागरवंशी (शाक्य) भी 1937 के बाद से सैनी लिखते है जिनका यदुवंशी सैनी राजपूतो से कोई सम्बन्ध नहीं है। यदुवँशी सैनी राजपूत यदुवँश की जादौन शाखा से है। सैनी/शूरसैनी वंश भगवान श्री कृष्ण के दादा एवं वासुदेव के पिता महाराजा शूरसैनी से आरम्भ हुआ। 11वी शताब्दी में ग़ज़नवी आक्रमण से लड़ने के लिए यदुवंशी सैनी करौली, मथुरा से जम्मु, हिमाचल, पजाँब और उतर हरियाणा मे पलायन कर गए । (proof - https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/8/85/1937_Jodhpur_State_Order-_Renaming_of_Mali_Caste_as_Saini.JPG)

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बल बुद्धि विद्या देहु मोहि ...॥

आज के समय में एशिया का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति , 6 फुट 5 इंच और 150 किलो का, शॉटपुट का एशियाई चैंपियन, यदुवंशी इंदरजीत सिंह सैनी है। यह तो हुई बल की बात ।

और जिस कंप्यूटर से आप फेसबुक ब्राउज कर रहे हैं उसका माइक्रोचिप पेंटियम प्रोसेसर इंटेल के वैज्ञानिक यदुवंशी अवतार सिंह सैनी ने डिज़ाइन किया है । यह हुई बुद्धि और विद्या की बात ।

यदुवंशी क्षत्रिय सैनी राजपूतों और आप सब पाठकगणो पर हनुमान जी की अपार कृपा ऐसे ही बनी रहे ।

जय कपीश ! जय वज्रांग ! जय मरुतपुत्र ! जय संकट मोचन !
जय बल बुद्धि और विद्या के धाम वीर हनुमान !

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नोट- राजस्थान और दक्षिण हरियाणा में माली और पशिचमी यू.पी में भागीरथी,मुराव (मौर्य),काछी (कुशवाहा), सागरवंशी (शाक्य) भी 1937 के बाद से सैनी लिखते है जिनका यदुवंशी सैनी राजपूतो से कोई सम्बन्ध नहीं है। यदुवँशी सैनी राजपूत यदुवँश की जादौन शाखा से है। सैनी/शूरसैनी वंश भगवान श्री कृष्ण के दादा एवं वासुदेव के पिता महाराजा शूरसैनी से आरम्भ हुआ। 11वी शताब्दी में ग़ज़नवी आक्रमण से लड़ने के लिए यदुवंशी सैनी करौली, मथुरा से जम्मु, हिमाचल, पजाँब और उतर हरियाणा मे पलायन कर गए । (proof - https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/8/85/1937_Jodhpur_State_Order-_Renaming_of_Mali_Caste_as_Saini.JPG)

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सिख पद्धति से भगवती दुर्गा जी का पाठ पढ़िए और श्रवण कीजिये । यह दसवीं पातशाही श्री गुरु गोबिंद साहब जी की कृति है । यह सतगुरु कृत वार समाज और आत्मा के सोये हुए क्षत्रिय संस्कारों को जागृत करती है और मुक्ति का मार्ग दिखाती है । अकाली निहंग सिंह छावनियों में इस वार का विशेष पाठ होता है ।

https://www.youtube.com/watch?v=xBAftU0Zy7o
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"कृष्ण का यादव कुल तो महाभारत के बाद ही समाप्त हो गया था! " - this is very typical ignorant view propagated by arm chair historians whose sole source of knowledge is TV serials and Chandamama comics. They do not have even preliminary acquaintance with Indian history texts and scriptures.

Vishnu Puran, Mahabharata ( see MBh. 1.13.49, 65) and Srimad Bhagvat Puran very clearly and explicitly state that Yaduvanshis did not end after Mahabharata war. Arjun settled some of them in Punjab (Chapter 5, Vishnu Puran and MBh. 1.13.49, 65) and Krishna's great grand son Vajranabh was made king of Mathura by Yudhishthir.

English historian Cunningham noted that Yaduvanshis have produced the most powerful ruling dynasties in the history of India, reigning over vast kingdoms spread from Karnataka in south to Afghanistan. Yaduvanshis are not mythical. They lived in full light of history and are still continuing.


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यदुवंशी क्षत्रिय सैनी राजपूत महासभा के मुख्य उद्देश्य :

1. पंजाब , जम्मू, हिमाचल और पंजाब के सीमावर्ती पश्चिमोत्तर हरयाणा में बसने वाले शूरसैनियों (अर्थात शुद्ध सैनियों) में श्री कृष्ण के दादा महाराजा शूरसेन से आरम्भ होने वाली उनकी यदुवंशी क्षत्रिय राजपूत वंशावली की स्मृति का संरक्षण करना ।

2. यदुवंशी सैनियों में सनातन धर्म और सिख मत का अनुसरण करने वाली उनकी क्षत्रिय धरोहर का संरक्षण करना । सैनी भाईचारे में शास्त्र का प्रचार करना और उनमे वेद-वेदांत और श्री गुरु ग्रन्थ साहिब के प्रति अभिरुचि और जिज्ञासा का विकास करना।

3. सैनी क्षत्रिय नवयुवकों को विधान और शास्त्र सन्मत शस्त्र विद्या सीखने की और उनको उनके वीर पूर्वजों की तरह धर्म और देश हित के लिए बलिदान देने की प्रेरणा देना ।

4. यदुवंशी सैनियों को उनके पूर्व मध्यकालीन मथुरा , दिल्ली, बयाना, धौलपुर, कमान इत्यादि क्षेत्रों में विभाजित राजपूत राज्य का और उनके ग़ज़नी के आक्रमणकारियों के साथ लगभग तीन सौ साल तक चले उनके युद्धों के लिए पंजाब पलायन का स्मरण दिलाना ।

5. क्षत्रिय मूल्यों और मर्यादाओं की रक्षा हेतु पंजाब और सीमावर्ती क्षेत्रों के शुद्ध सैनियों को इन इलाके के अन्य राजपूत संघठनो के साथ सामाजिक , सांस्कृतिक और राजनैतिक सामंजस्य के लिए प्रेरित करना ।

6. पंजाब से बाहर बिखरे हुए यदुवंशी राजपूतों (जो की समय और स्थान के फेर से जादों, भाटी, छोंकर, बनफर, जाधव इत्यादि नामो से विलक्षित हुए ) और शुद्ध यदुवंशी सैनी राजपूतों को एक मंच पर एकत्रित करके उनको अपने स्वर्णिम इतिहास का बोध कराना ।

7. विश्वविद्यालयों के इतिहासकारों द्वारा प्रमाणित प्रणाली से पंजाब और सीमावर्ती क्षेत्रों के यदुवंशी सैनियों के इतिहास का लेखन और प्रकाशन करना।

8. 1937 के उपरान्त पंजाब के बाहर गैर-क्षत्रिय जातियों द्वारा सैनी पहचान , इतिहास और महानुभूतियों के नामों के दुरूपयोग का विरोध करना और जन मानस को शुद्ध सैनियों के इतिहास और सांस्कृतिक पहचान का बोध कराना ।

9. वेद-वेदांत और सिख मत की आलोचना करने वाली सभी विचारधाराओं का खुल कर खंडन और विरोध करना।

10. हिन्दू समाज की विभिन्न जातियों को एक ही कालपुरुष के विभिन्न अंग मानकर उनकी सेवा करना और अश्पृश्यता और छुआ छूूत जैसी सामाजिक कुरीतियों का विरोध करना । अपनी अलग सांस्कृतिक पहचान की रक्षा करते हुए समाज की सभी जातियों के साथ भाईचारा रखना और उनका आदर करना । कालपुरुष के मौलिक ऐक्य को स्वीकार करते हुए समाज की विभिन्न जातियों को उच्च और नीच में विभाजित करके नहीं देखना ।

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क्या भारत अहिंसा से स्वतन्त्र हुआ था? सही उत्तर है "नहीं" । भारत को आज़ाद हिन्द फ़ौज ने आज़ाद कराया था लेकिन अंग्रेज़ों की पित्ठू कांग्रेस ने सारा श्रेय गाँधी और नेहरू को दे दिया और हर भारतीय को बचपन से बुढ़ापे तक यही घुट्टी सरकार द्वारा पिलाई जाती रही । अब यह बदलना चाहिए ।

पंजाब की अन्य मार्शल जातियों की तरह सैनियों ने भी आज़ाद हिन्द फ़ौज में बहुत भागीदारी डाली । होशिअरपुर, गुरदासपुर और रोपड़ में शायद ही कोई ऐसा सैनी परिवार होगा जिसका कोई दूर पास का रिश्तेदार आज़ाद हिन्द फौज में नहीं लड़ा होगा ।

इससे पहले ग़दर और बाबर अकाली क्रांतियों में सैनियों के बहुत युवक शहीद हुए। इनमे से प्रमुख नाम है होशिअरपुर के शहीद हरनाम सिंह सैनी जिनको 1916 में फांसी हुई और शहीद मोहिंदर सिंह सैनी जो अंग्रेजी पुलिस के साथ लड़ते शहीद हुए । गदरी बाबे और बबर अकाली शहीद भगत सिंह के मुख्य प्रेरक थे । हम लोग भगत सिंह को तो याद रखते है (और रखना भी चाहिए) लेकिन उनके प्रेरकों को अक्सर भूल जाते है ....ऐसा नहीं होना चाहिए ।

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पोरस सैनी यदुवंशी राजपूत अर्थात शूरसैनी थे ||

"अर्रियन. डिओडोरस और स्टारबो के अनुसार मेगेस्थेनेस ने एक भारतीय कबीला बताया है जिसका नाम "सौरसेनोई" है | यह लोग (यानि "सौरसेनोई") "हेराकल्स" की विशेष रूप से पूजा करते थे | इनके राज्य में दो नगर थे , "मेथोरा" और "कलेस्बोरा" जो की "जोबरेस" के तट पर थे | जैसा की इस काल में प्रचलित था , ग्रीक लोग विदेशी देवताओं को अपने देवताओं के रूप में वर्णित करते थे | इस बात में शक की कोई गुंजाईश नहीं कि "सौरसेनोई" शूरसैनी ही हैं जो कि यादवों कि वो शाखा हैं जिससे श्री कृष्ण थे | इसी प्रकार "हेराकल्स" का अभिप्राय श्री कृष्ण हैं , "मेथोरास" का अभिप्राय मथुरा से है , "कलेस्बोरा" का अभिप्राय कृष्णपुरा है जिसका मतलब "कृष्ण का नगर" है और "जोबरेस" यमुना है , जो कि कृष्ण कथा की प्रसिद्ध नदी है || किन्तुस कुर्टिउस ने लिखा है जब सिकंदर का मुकाबला पोरस से हुआ तो पोरस के सैनिक हेराक्लेस (यानि कृष्ण) का ध्वज उठाये हुए थे |

"According to Arrian, Diodorus, and Strabo, Megasthenes described an Indian tribe called Sourasenoi, who especially worshipped Herakles in their land, and this land had two cities, Methora and Kleisobora, and a navigable river, the Jobares. As was common in the ancient period, the Greeks sometimes described foreign gods in terms of their own divinities, and there is a little doubt that the Sourasenoi refers to the Shurasenas, a branch of the Yadu dynasty to which Krishna belonged; Herakles to Krishna, or Hari-Krishna: Mehtora to Mathura, where Krishna was born; Kleisobora to Krishnapura, meaning "the city of Krishna"; and the Jobares to the Yamuna, the famous river in the Krishna story. Quintus Curtius also mentions that when Alexander the Great confronted Porus, Porus's soldiers were carrying an image of Herakles in their vanguard.Krishna: a sourcebook, pp 5, Edwin Francis Bryant, Oxford University Press US, 2007"

-Krishna: a sourcebook, pp 5, Edwin Francis Bryant, Oxford University Press US, 2007

पोरस एक सैनी यदुवंशी अर्थात शूरसैनी राजा थे ।

"पुरु चंद्रवंशियों की एक शाखा का पारिवारिक नाम बन गया । सिकंदर के इतिहासकारों ने इस नाम को "पोरस" समझा । मथुरा के शूरसैनी (शूरसेन के वंशज) पुरु ही थे जिनको मेगेस्थेनेस ने "प्रासिओई" की संज्ञा दी ।"

- एनल्स एंड अतीक़ुइटीएस ऑफ़ राजपुताना , कर्नल टॉड

"हमने पंजाब के यदुवंशियों को पोरस नामक राजा उत्पन करने का श्र्येय दिया है भले ही परमार या पवार का नाम भी पोरस के नाम से मेल खाता है ।"

- एनल्स एंड अतीक़ुइटीएस ऑफ़ राजपुताना , कर्नल टॉड

"शूरसैनियों की प्राचीन काल में अपनी अलग भाषा थी । यह भी उनके वंशजों की तरह शूरसैनी कहलाती थी ।"

- सर एलेग्जेंडर क्यूँनहींघम , पूर्वी राजपुताना में भ्रमण की रिपोर्ट 1882-83 , VOLUME XX, pp 2 , आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया

" सौरसेनोई (अर्थात शूरसैनी) , जो की मथुरा और कृषणपुरा के राजा हैं , हेराक्लेस (अर्थात बलराम जी) , को विशेष सम्मान के साथ पूजते हैं "

- मेगेस्थेनेस , ३०० इसा पूर्व , इंडिका

https://www.youtube.com/watch?v=gXLoPnYqDAU

http://www.sainionline.com/raja-porus--ancient-saini-hero

हुकुम, सिर्फ नौसिखिये इतिहासकार ही नाम की समानता से ऐतिहासिक निष्कर्ष निकालते हैं और टॉड ने खुलकर इस तरह के "इतिहासों" का खंडन किया और उनका मज़ाक बनाया है | जो भी आजकल पोरस की वंशावली आपको मिलती की है वह सभी जाली और मनगढंत है जिसका आधार किसी प्रमाणित तथ्य और सिद्धांत पर नहीं है | ऐसी कई जाली वंशावलियाँ जाटों, मोहयालों , कटोचो और खत्रियों ने भी बना रखी हैं जो की इतिहासकारों के लिए हास्यास्पद हैं | कर्नल टॉड ने "पुरु" शब्द जो पोरस के सन्दर्भ में प्रयोग किया है उसका निरुक्त "प्रयाग" से बताया है जो की प्राचीन यदुवंशियों /शूरसैनियों का महत्वपूर्ण केंद्र और तीर्थ स्थान था | माकृण्डले ने पोरस शब्द का निरुक्त ग्रीक "प्रासिओई" से बताया है जो की संस्कृत "प्राच्या" (यानि पूर्व दिशा) का प्रारूप है | पंजाब में आजतक शौरसेन (यानि उत्तरप्रदेश , पूर्वी राजपुताना और उत्तरी मध्यप्रदेश) प्रदेश से आये लोगों को ""पूर्वी" बोलै जाता है | इसी कारण से "ग्रीक" इतिहासकारों ने चद्रगुप्त मौर्या (जो की मगध से था) को भी "प्रासिओई" कहकर पुकारा है | लेकिन निरुक्त पर आधारित यह तर्क प्रमाणित इतिहासकरों का पोरस को शूरसैनी कहने के लिए मुख्य आधार नहीं है | पोरस की शूरसैनी कहने के लिए उसकी सेना के ध्वज पर हेराक्लेस (बलराम या कृष्ण) का होना माना जाता है | मेगेस्थेनेस ने केवल शूरसैनियों को इस देवता का उपासक बताया था | मेगेस्थेनेस पूरा उत्तरी भारत घूम चूका था | शूरसैनियों ने मध्य भारत से अफ़ग़ानिस्तान में ग़ज़नी तक का इलाका जीत रखा था और प्राचीन पंजाब पर उनका वर्चस्व सर्वसिद्ध और सर्वमान्य है | पंजाब का सियालकोट भी शूरसैनी राजा शालिवाहन ने बसाया था | इतिहासकर इन सब तथ्यों के आधार पर ही पोरस को शूरसैनी बोलते हैं....केवल नाम की समानता के आधार पर नहीं | प्रमाणित इतिहासकार घर के भाटों से लिखवाये हुए इतिहास और वंशावलियों को कोई मान्यता नहीं देते | प्रमाणित इतिहासकार केवल वैज्ञानिक पद्धति से प्रमाणित इतिहास ही मानते है और उसी के आधार पर पोरस को शूरसैनी बताते हैं |


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नोट- पशिचमी यू.पी में भागीरथी गोले,मुराव (मौर्य),काछी (कुशवाहा), सागरवंशी (शाक्य), गोले जो आज कल अपने को "सूर्यवंशी सैनी" कहते हैं 1900 और राजस्थान और दक्षिण हरियाणा में माली 1937 के बाद से सैनी लिखते है जिनका यदुवंशी सैनी राजपूतो से कोई सम्बन्ध नहीं है। यदुवँशी सैनी राजपूत यदुवँश की जादों शाखा से हैं जिसमे राजा धर्म पाल , राजा विजय पाल और राजा थिंद पाल इत्यादि सैनी राजपूत राजा हुए । सैनी वंश कि स्थापना श्री कृष्ण के दादा महाराजा शूरसेन द्वारा हुई जिस कारण यह शूरसैनी कहलाते हैं । ग्यारवी से तेरवी शताब्दियों के अंतराल में सैनी राजपूत गज़नी और गौरी के हमले रोकने के लिए मथुरा , बयाना, कमान और दिल्ली से पंजाब गए और समय अनुसार पंजाब, हिमाचल, जम्मू और पश्चिमोत्तर हरयाणा के नीम पहाड़ी क्षेत्रों में बस गए । (proof - https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/8/85/1937_Jodhpur_State_Order-_Renaming_of_Mali_Caste_as_Saini.JPG)

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नोट- राजस्थान और दक्षिण हरियाणा में माली और पशिचमी यू.पी में भागीरथी,मुराव (मौर्य),काछी (कुशवाहा), सागरवंशी (शाक्य) भी 1937 के बाद से सैनी लिखते है जिनका यदुवंशी सैनी राजपूतो से कोई सम्बन्ध नहीं है। यदुवँशी सैनी राजपूत यदुवँश की जादों शाखा से है। सैनी/शूरसैनी वंश भगवान श्री कृष्ण के दादा एवं वासुदेव के पिता महाराजा शूरसैनी से आरम्भ हुआ। 11वी शताब्दी में ग़ज़नवी आक्रमण से लड़ने के लिए यदुवंशी सैनी करौली, मथुरा से जम्मु, हिमाचल, पजाँब और उतर हरियाणा मे पलायन कर गए । (proof - https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/8/85/1937_Jodhpur_State_Order-_Renaming_of_Mali_Caste_as_Saini.JPG)

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"In the Punjab in the sub-mountainous region the community came to be known as 'Saini' . It maintained Rajput character despite migration."

-Castes and Tribes of Rajasthan, p 107, Sukhvir Singh Gahlot, Banshi Dhar, Jain Brothers, 1989

"They had their kingdom in Karauli in Rajasthan. They were called Shoorsainis. Sri Krishna's grandfather was Shoorsen because of which the region around Mathura was known as Shoorsen and Yadavas of this region were called Shoorsainis."

-Mangi Lal Mahecha, Rājasthāna ke Rājapūta (The Rajputs of Rajasthan) , Rajasthan, 1965

" Before the formation of Bharatpur state the capital of Sinsinwars was at Sinsini. Sinsini earlier was known as 'Shoor saini' and its inhabitants were known as 'Saur Sen'. The influence of Saur Sen people can be judged from the fact that the dialect of the entire north India at one time was known as 'Saursaini'. Shoor Sain people were Chandra Vanshi kshatriyas. Lord Krishna was also born in vrishni branch of Chandravansh. A group of Yadavas was follower of Shiv and Vedic God in Sindh. Some inscriptions and coins of these people have been found in 'Mohenjo Daro .... The above group of Yadavas came back from Sindh to Brij area and occupied Bayana in Bharatpur district. After some struggle the 'Balai' inhabitants were forced by Shodeo and Saini rulers to move out of Brij land and thus they occupied large areas."

-Encyclopaedia Indica: India, Pakistan, Bangladesh, Volume 100, pp 119 - 120, SS Sashi, Anmol Publications, 1996

"The Muhammadan invasions drove a wedge through the Rajput principalities of the eastern Punjab. Some of the Rajput clans fled to the deserts of Rajputana in the south, others overcame the petty chiefs of Himalayan districts and established themselves there. A few adventurers came to terms with the invaders and obtained from them grants of land. The Sainis trace their origin to a Rajput clan who came from their original home near Mathura on Jumna, south of Delhi, in defence of the Hindus against the first Muhammadan invasions."

-The land of the five rivers; an economic history of the Punjab from the earliest times to the year of grace 1890, pp 100, Hugh Kennedy Trevaskis, [London] Oxford University press, 1928


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यदुवंशी सैनी राजपूतों द्वारा बनाया गया ऐतहासिक स्कूल जो अब पाकिस्तान पंजाब की ननकाना साहिब डिस्ट्रिक्ट में है ।

इस स्कूल की स्थापना 1916 में हुई । यहाँ सैनियों की 15 -20 गावों की ज़मीदारी थी और इस इलाके को सैनी-बार कहा जाता था । ज्यादातर सैनी भाई यहाँ पर सेना निवृत सिपाही थे । आप स्कूल की ईमारत से अंदाज़ा लगा सकते हैं की यह लोग काफी संपन्न, पढ़े लिखे और वर्चस्वी थे । आज के दौर में ऐसी ईमारत पर करोड़ों रुपया लग जाता है ।

चौधरी भोला राम सिंह सैनी पूरे सैनी-बार इलाके , जिसमे लगभग 15 -20 गांव पड़ते थे, के सफेदपोश जैलदार (ठाकुर) थे । बटवारे के बाद यह स्कूल होशिअरपुर स्थानांतरित हो गया और खड्डियाला सैनियाँ के चौधरी इज़्ज़त राय वहां के पहले हेडमास्टर साहब बने । आज एक सैनी बार कॉलेज भी आस्तित्व में है जो की पंजाब यूनिवर्सिटी से जुड़ा हुआ है । यह एक ऐतिहासिक स्कूल है और हमारे पूवजों की दूरंदेशी और बुद्धि का परिचय देता है ।

इस स्कूल से पढ़े हुए विद्यार्थी आज अमेरिका , इंग्लैंड और पाश्तात्य देशों में वैज्ञानिक , प्रोफेसर और ऊंचे पदाधिकारी हैं । इनमे से अमेरिका के ऑहियो स्टेट यूनिवर्सिटी के प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. गुलशन राय सैनी प्रमुख उदाहरण हैं । उनके बारे में आप निम्न लिखित लिंक पर पढ़ सकते हैं ।

http://vmacch.ca/Science%26Technology/Saini_Gulshan/saini.html

https://www.facebook.com/shoorsenoi/videos/448914032174964/

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पंजाब के यदुवंशी सैनी राजपूत एक सम्रद्ध एवम सम्पन्न कौम है। उन्हें आरक्षण रुपी रेवड़ियों की ज़रूरत नही।

वोटबैंक की राजनीति के लिए बादल सरकार ने बिना विश्वास में लिए सैनी राजपूतो तथा दूसरे सिख राजपूतो को जनरल केटेगरी से ओबीसी में डाल दिया है। जिससे सैनी समाज में रोष है। ऐसा ही कुछ 2009 में भी सरकार ने करने की कोशिश की थी पर व्यापक विरोध के चलते अपना निर्णय वापस लेना पड़ा।

आज जबकि भारत की बहुत सी सम्पन्न जातिया ओबीसी बनने की ज़िद पर अड़ी है, सैनियो ने आरक्षण को लात मारकर अपने उच्...च आत्मसम्मान का परिचय दिया है जिसके लिए क्षत्रियो को जाना जाता है।